सलाखों के पीछे नम आँखों से राह निहारती वो बदनसीब बहने…!
बिलासपुर-{जनहित न्यूज़}
मनोज राज…
रक्षाबंधन…एक ऐसा पवित्र पर्व, जिसमें भाई-बहन के रिश्ते की मिठास और विश्वास का सबसे सुंदर रूप देखने को मिलता है। यह सिर्फ एक त्यौहार नहीं, बल्कि एक भावना है स्नेह, संरक्षण और अपनत्व की भावना। लेकिन, इसी पर्व की पवित्रता के बीच एक ऐसी सच्चाई छिपी है, जो हमारी सामाजिक सोच पर गहरा सवाल खड़ा करती है।
रक्षाबंधन पर जेल प्रशासन की ओर से कैदी भाइयों और उनकी बहनों को मिलने और राखी बांधने की अनुमति दी जाती है, जिसके तहत बहनें जेल में जाकर अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं.
हर साल रक्षाबंधन के दिन सेंट्रल जेल में पुरुष कैदियों से मिलने के लिए हजारों बहनें आती हैं। भीड़ इतनी अत्यधिक हो जाती है कि जेल प्रशासन को बैरिकेड्स लगाने पड़ते हैं, लंबी कतारें लगती हैं, और एक-एक करके बहनें अपने भाइयों से मिलकर राखी बांधती हैं। यह देखकर लगता है कि भले ही उन्होंने अपराध किया हो, पर रिश्तों के धागे पर कोई बंदिश नहीं लगाई गई है। समाज उन्हें त्योहार के इस अवसर से वंचित नहीं करता, क्योंकि भाई-बहन का यह बंधन “अटूट” माना जाता है।

लेकिन, वहीं दूसरी तरफ तस्वीर का दूसरा पहलू कहीं अधिक कड़वा है…!जेल की महिला कैदी।
जिनके लिए रक्षाबंधन का दिन सिर्फ लोहे की सलाखों के पीछे से गुजर जाता है। वे खिड़की से बाहर झांकती हैं, उनकी आंखों में इंतजार की परतें होती हैं, लेकिन उनसे राखी बनवाने कोई भाई नहीं आता। मानो समाज ने पहले ही फैसला सुना दिया हो कि “महिला अपराधी” रिश्तों के अधिकार से भी वंचित है।
विडंबना यह है कि इनमें से अधिकांश महिलाएं वे हैं, जो अक्सर किसी अपने पुरुष रिश्तेदार.भाई, पति या पिता का अपराध अपने सिर ले लेती हैं, ताकि घर का कमाने वाला बच सके और परिवार के बच्चों की रोटी की व्यवस्था बानी रहे। फिर भी, अपराध का बोझ उनके साथ-साथ उनकी मानवीय भावनाओं को भी सलाखों में कैद कर देता है।
पुरुष अपराधी को समाज त्योहारों में मानवीय दृष्टि से देखता है, लेकिन महिला अपराधी के लिए मानो संवेदनाओं के द्वार हमेशा के लिए बंद कर देता है। यह केवल अन्याय नहीं, बल्कि सामाजिक पाखंड का सबसे स्पष्ट उदाहरण है।
क्या महिला अपराधी को भाई को राखी बांधने का अधिकार नहीं?
क्या भावनाएं सिर्फ पुरुष कैदियों के हिस्से की संपत्ति हैं?
क्या यह त्योहार सिर्फ उन रिश्तों के लिए है, जो समाज की नजर में “सम्मानजनक” हैं, भले ही उनके पीछे अपराध हो?
राखी के धागे समानता, सुरक्षा और स्नेह के प्रतीक हैं। लेकिन जब हम इन्हीं धागों को लिंग के आधार पर तोड़ देते हैं, तो हम सिर्फ रिश्तों के साथ अन्याय नहीं करते, बल्कि अपनी मानवता का भी गला घोंट देते हैं।
यह समाज के लिए एक आइना है…!जिसमें उसे अपना वह चेहरा देखना चाहिए, जो पवित्र पर्व के दिन भी भेदभाव से भरा है। अगर रक्षाबंधन सच में “अटूट बंधन” है, तो यह हर कैदी—चाहे पुरुष हो या महिला के लिए समान होना चाहिए। क्योंकि अपराध की सजा कानून देता है, रिश्तों को खत्म करने का हक समाज के पास नहीं है।

